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Vani Prakashan

Nirvachit Kahaniyan

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अन्तर्जगत् के अँधेरे, आत्मा का आर्तनाद, आदमी के अन्दर उग आये जंगल, मृत्यु, हठ और चकाचौंध का यह मोड़ जहाँ भीतर का सच बाहर के सच से जुड़ जाता है, हमेशा-हमेशा मेरा सरोकार रहा है। किसी वाद विशेष का बोल बजाती बयानबाज़ी की कहानियाँ मैं कभी नहीं लिख सका। जब भूख, मौत और रोटी और ज़िन्दा रहने की जंग पर बाज़ारू मीडिया का एकछत्र क़ब्ज़ा हो जाता है, तो हम अपना-अपना चेहरा ढाँपकर, अपने यक़ीन और मान्यताओं को भूलकर रोने लगते हैं। मसखरे कभी नहीं रोते के पात्र बन जाते हैं। इन मसखरों का स्वागत कर हम अपने इन्सानी वकार और अस्मिता को पुख्ता करते हैं।

अन्दर के अँधेरे के साम्राज्य से बाहर निकलकर, बाहर की जगमगाती रौशनी की दुनिया में, मैंने ऐसे उजाले को देखने की, छू लेने की कोशिश की, जहाँ दहाड़ते, दिल दहलाते परभक्षी न हों। लेकिन हैं ज़रूर । हर जगह। हर वक़्त । सदियों के लम्बे सफ़र के बाद पशु से विकसित आज का आदमी क्या अपने पूर्वज से कहीं अधिक क्रूर है, मक्कार है, काँइयाँ और कमीना है? वह अमेरिका का रूप धारण कर अफ़ग़ानिस्तान, इराक और जाने और कितने उपनिवेशों को मिटाने में जुटा है।

मेरी कहानियाँ ठहर जाने वाले चित्रों की कहानियाँ हैं। गहराई और विस्तार, इन दो आयामों के बीच चलते-फिरते पर्त-दर-पर्त नंगे होते लोगों से पहले मैं खुद नंगा होता हूँ।

मैंने सोच-समझकर शून्यता के स्थान पर दुःख को स्पेस चुना है। माध्यम के रूप में साहित्य में मेरी सम्पूर्ण आस्था है, क्योंकि यह हमें समझ के तार से सदा जोड़ता है।

- प्राक्कथन से

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9789357755177
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