Parajita Ka Aatmkathya

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पराजिता का आत्मकथ्य - 
समकालीन धरातल पर नायक और खलनायक के बीच की विभाजक रेखा विलीन हो रही है। शुद्ध सफ़ेद या स्याह के बीच के अनेक शेड्स के बीच जीते पात्रों, पुराने मिथकों, मान्यताओं और स्थापनाओं को खुली और तटस्थ दृष्टि से देखा, परखा जाँचा जा रहा है। रामायण काल के कलुषित समझे जाने वाले चरित्र कैकयी का नये दृष्टिकोण से आकलन कर लिखा गया रामकिशोर मेहता का यह उपन्यास उसके सहज मानवीय स्वरूप को उभारता है।
कैकेयी अर्थात अपूर्व आत्मविश्वास से दीप्त, स्वतन्त्र मस्तिष्क लिए, वीर और युद्ध कौशल में दक्ष थी। राजा दशरथ से विवाह, कैकेयी की ज़िन्दगी का अनचाहा परन्तु निर्णायक मोड़ था, जहाँ सोलह वर्ष की नवयौवना, साठ वर्ष बुढ़े राजा दशरथ की कामान्धता को भेंट चढ़ायी गयी थी। उसी क्षण से वह राजा दशरथ के विरुद्ध घृणा और वितृष्णा से भर उठी थी और ताउम्र उनके विरुद्ध प्रतिशोध एवं षड्यन्त्र के कुचक्र रचती रही। वह राजमहल में पहले से विद्यमान दो महारानियों तथा तीन सौ से अधिक रानियों से सर्वथा अलग धातु की बनी थी अपनी मुखर स्त्री चेतना ने कैकेयी के मन में सपत्नियों के विरुद्ध कभी द्वेष नहीं भरा। थी तो केवल दया और हमदर्दी। राम से उसका कतई व्यक्तिगत विरोध नहीं था बल्कि वह तो उनके उदात्त, मर्यादित व्यक्तित्व की प्रशंसक थी और उसे युगप्रवर्तक कहती थी। सीता के प्रति भी उसके मन में कोमल संवेदनाएँ थीं। राम और सीता पर हुए अन्यायों के प्रति वह अपराध भाव लिए होती थी, मगर दशरथ को आहत पराजित देख कर उसे क्रूर आनन्द मिलता था। इस नाते यह उपन्यास 'कैकेयी जैसी सौतेली माँ'  के मिथक को ख़ारिज भी करता है। दरअसल 'पराजिता का आत्मकथ्य' कैकेयी की महत्वाकांक्षा, बेचैनी, कड़वाहट, छटपटाहट की निष्पक्ष विवेचना है। स्त्री-विमर्श के आईने में उसका अपनी स्वतन्त्र सत्ता के लिए सतत संघर्ष, पुत्रवती की जगह सन्तानवती होने का आशीष देना, कन्या भ्रूण हत्या के आज के दौर में महत्वपूर्ण है। इसके साथ ही यह प्रश्न कि कौनसा कुल है स्त्री का,  वह जिसने उसे त्याग दिया अथवा वह जिसने कभी उसे अपनाया ही नहीं- चिर विस्थापित होने की स्त्री व्यथा को वाणी देता है। कैकयी के सन्दर्भ में यह विस्थापन और भी भयावह है। न केवल कैकयी और अयोध्या के भिन्न सामाजिक धरातल वरन उसके पुत्र का अयोध्या का उत्तराधिकारी होने का विवाह का अनुबन्ध, जिसे अयोध्या के लोगों ने कभी स्वीकार नहीं किया और कैकेयी को कभी यथोचित स्नेह सम्मान नहीं दिया। यहाँ तक कि भरत को स्वीकृति भी राम चरण पादुका की स्थापना के बाद ही मिल सकी। यानी उसे मिली विजय वस्तुतः पराजय ही थी।

इस आत्मकथा के ज़रिये, तत्कालीन समाज के सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक तानेबाने को समझने का भी प्रयास है। राजा की ख़ुशी में प्रजा द्वारा घी के दीये जला कर अपनी राज (देश) भक्ति प्रमाणित करने की आवश्यकता, राजनेता, धर्मगुरु और मीडिया की सम्मिलित रणनीति के तहत सुन्दर झूठ, नये मिथक रच कर प्रजा का दृष्टिकोण बनाना-बदलना; सत्ता के इर्दगिर्द नित नये षड्यन्त्र वर्चस्व के लिए धर्म-वर्ग चेतना के संघर्ष, शत्रु की विभाजित निष्ठा का अपने हित में प्रयोग आदि तथ्य आज भी प्रासंगिक लगते हैं। अहल्या को मिले शाप, शूद्र तपस्वी शम्बूक के दण्ड, सीता के निर्वासन के पीछे की राजनीति समाज के अन्तर्विरोधों को उजागर करती है। लेखक की कल्पना, राम और कैकेयी का सीधा संवाद कराती है जिसमें अनेक अनजान पहलू उभर कर आते हैं। निश्चय ही राम, कैकेयी की सोच और आकलन से अधिक कुशल राजनीतिज्ञ, समर्थ कूटनीतिज्ञ व माहिर पैंतरेबाज थे।

दरअसल कैकेयी पुरुष वर्चस्ववादी समाज में अपना स्पेस तलाशती रही। इस क्रम में वह छल, कपट, षड्यन्त्रों, ब्लैकमेलिंग का सहारा लेकर सत्ता के सूत्र अपने हाथों में समेटने में सफल होती है, परन्तु एकान्त आत्मविश्लेषण में अपने कुकृत्यों पर प्रायश्चित्त भी करती है। एक सतत लड़ाई वह अपने आपसे, अपने ही संस्कारों और परिस्थितियों के विरोध में करती है और अन्ततः अपने को छला हुआ, पराजित महसूस करती है। यदाकदा लेखन में भटकाव, दोहराव एवं अनावश्यक विस्तार के बावजूद, कैकेयी के चरित्र को तमाम मानवीय क्षमताओं, संवेदनाओं खामियों तथा सीमितताओं में समझने का लेखक का यह प्रयास सराहनीय है।
-डॉ. प्रभा मजुमदार

ISBN
9789350721490
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