Parchhain Kee Khidki Se

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परछाईं की खिड़की से -

युवा कवयित्री राजुला शाह का यह पहला कविता-संग्रह है। उनकी कविता स्पर्श और दृष्टि की हल्की-सी छुअन के साथ वस्तु-जगत के रूपान्तरों से खेलती हुई सहज ही अमूर्त के अथाह में छलांग लगाती देखी जा सकती है। एकदम निजी और अन्तरंग को व्यक्त करने के, लिए राजुला जिन बिम्बों और उपमाओं को लाती हैं वे उसे न केवल गहराई देते हैं, एक ताजगी भी दे जाते हैं-

'कहा 

जो 

हवा में 

कोई फूँक-सा

उसे सुन ले 

झरने की झिलमिल छाया में 

पानी पर ततैया के खेल-सा 

मन में छूट जाए।'

प्रकृति और जीवन के इन सघन राग-संवेगों के बीच राजुला की कविताओं में मृत्यु और अस्मिता के सवाल सहज कौंध की तरह आते हैं-

'अभी हैं 

अभी नहीं हैं 

होना 

न होना कितना सहज था 

आँखें बन्द करके 

छुप सकते थे बचपन में ।'

आज जब कविता बोलचाल के नाम पर अपनी व्यंजनात्मक क्षमता खोकर सपाट हुई जा रही है, राजुला का शब्द और लय के नये, अर्थपूर्ण संयोजन का यह आकर्षण निश्चय ही कविता के पक्ष में महत्त्वपूर्ण संकेत है।

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