Pathaar Par Kohra
पठार पर कोहरा -
झारखण्ड के वर्तमान जनजातीय जीवन पर लिखा गया एक सशक्त उपन्यास है पठार पर कोहरा । अंग्रेज़ों के भारत छोड़ने के बाद झारखण्ड के जंगलों में एक नयी शोषक संस्कृति का उदय हुआ । यह थी साहू, बाबू और बन्दूक की संस्कृति द्य आज भी एक निर्धन आदिवासी महाजन के घर में जन्म लेता है, बाबू की बेगारी में खटता है और साहू के कर्ज़ में मर जाता है । आदिवासी कल्याण की सरकारी योजनाओं का अल्पाधिक लाभ शहरी आदिवासियों को ही मिल पाता है, जो वस्तुतः आदिवासी समाज की ‘मलाईदार परत' हैं।
प्रस्तुत उपन्यास में इन क्षेत्रों में शोषण, उत्पीड़न और अत्याचार के नये-नये दुश्चक्रों के जाल में फँसे जनजातीय मानस को सजग करते, उनमें अस्मिता के बीज अँकुराते एक संवेदनशील और दृढ़ इच्छाशक्ति वाले नायक की कथा है, साथ ही हताशा में घिरी एक आदिवासी युवती के आत्मसंघर्ष एवं नारी मुक्ति की कहानी है । अन्त में श्रम, उद्यम और सहभागिता के लिए संघर्षशील जनजाति की यह कथा इस उत्तर की बेचौन खोज भी है कि हिन्दू धर्म के विराट कैनवास पर उनकी क्या जगह है ?
प्रस्तुत कृति में ऊबड़-खाबड़ झारखण्ड के इस खुरदरे यथार्थ के साथ-साथ लोक-जीवन का तरल स्पन्दन भी है, जंगल के विरूपित होते चेहरे के समानान्तर जीवन और प्रकृति के रिश्तों का सौन्दर्य भी है। नृशंस और हृदयहीन स्थितियों के बीच टटके महुवे के फूलों की भीनी महक से तर मानवीय सम्बन्धों की उष्णता भी है ।
आदिवासी जनजीवन पर औपन्यासिक लेखन का एक सफल सार्थक प्रयास !