Peele Rumalon Ki Raat
पीले रुमालों की रात -
मध्यकाल से ले कर उन्नीसवीं सदी के आरम्भ तक वनांचलों में ठगों का निर्बाध साम्राज्य रहा। काली के पूजक ये नृशंस ठग बीहड़ वनों में एक जगह से दूसरी जगह जाने वाली यात्राओं में सामान्य यात्रियों की तरह शामिल हो जाते थे, तथा अपने शिकार यात्रियों को सुरक्षा का आश्वासन दे कर विश्वास में ले लेते थे। बाद में सही अवसर पा कर गले में पीले रूमाल का फ़न्दा कस कर उनका काम तमाम कर के उन्हें लूट लेते थे। हज़ारों निरीह यात्री इनके शिकार होते रहे।
ताक़तवर वर्ग के गुप्त सहयोग व ब्रिटिश सरकार की उदासीनता के चलते सदियों तक चले इस नृशंस दौर के बाद उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में कहीं जा कर विलियम हेनरी स्लीमेन ने कुछ जांबाज़ भारतीयों के सहयोग से उनके सफ़ाये का बीड़ा उठाया। प्रस्तुत उपन्यास इसी संघर्ष काल की पृष्ठभूमि पर आधारित है।
'पीले रूमालों की रात' ठगों की कार्य प्रणाली, उनकी धूर्तता, नृशंसता, तथा मानसिकता का सूक्ष्म परीक्षण करता है। साथ ही इसमें वह दौर प्रतिबिम्बित है, जब सिद्धान्तों और कर्त्तव्यों की वेदी पर पिता-पुत्र भी आपसी सम्बन्धों की बलि चढ़ने में स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करते थे।
लेकिन मुख्यतः उपन्यास एक शाश्वत, अनुत्तरित प्रश्न से बार-बार टकराता है कि अन्याय की चरम सीमा तक प्रताड़ित व्यक्ति जब प्रतिकार में क़ानून अपने हाथ में ले लेता है, यथा वर्तमान समय में पानसिंग तोमर - तो उसे सही अथवा ग़लत की कौन सी कसौटी पर परखा जाये, तथा कौन सा स्थान सुरक्षित रखे इतिहास में उसके लिए?
अन्तिम पृष्ठ आवरण -
... बारिश थमी होती तो वे रातों को अक्सर छत पर चले जाते। विनोदिनी और उसके सामने पीने में उन्हें कोई झिझक नहीं होती। वे बड़ी सहजता से अपनी असफलता को स्वीकार कर सकते थे। न मैं कुछ कर सका न रामनारायण। अपनी-अपनी तरह से दोनों ने जान लगा दी। लेकिन व्यवस्था संज्ञान लेने तक को तैयार नहीं थी।'
न विनोदिनी उनके आख्यान के बीच आने को तैयार थी, न वह स्वयं।
'न ख़ुदा ही मिला न विसाले सनम...। इससे तो बेहतर था कि सामान्य फ़ौजी की ज़िन्दगी जीते शान से। रौब-दाब के साथ। तरक़्क़ी करते। यूनिट के शिखर पर पहुँचते। ठगों के गिरोहों से साँठ-गाँठ कर के मालामाल होते।... बड़े बगीचों के बीच कोठी बनाते और ऐसा कर के नरसिंगपुर की इज़्ज़त और श्रद्धा का पात्र बनते।...इसे कहते हैं सार्थक ज़िन्दगी... तुम समझे सुमेर...?
'... क्या फ़ायदा किसी सपने के पीछे दौड़ने का?... हाथ आ जाय तो जन्नत, नहीं आये तो मुँह दिखाने के क़ाबिल नहीं छोड़ता।'
विनोदिनी एक हद तक उन्हें जाने देती। फिर इशारा कर देती कि अब बस। अब लगाम दो अपने एकालापों को।