Pratirodh Ki Sanskriti

As low as ₹395.00
In stock
Only %1 left
SKU
9789350722060
"प्रतिरोध की संस्कृति - मानवीय समाज यूँ तो सामंजस्य पर टिका होता है किन्तु प्रतिरोध उसका एक महत्त्वपूर्ण वैयक्तिक एवं सामाजिक भाव होता है। दमित समूह, समुदाय एवं संस्कृतियाँ अपने ऊपर सतत हो रहे दमन के विरुद्ध प्रतिरोध कर रही होती हैं। यह प्रतिरोध कई बार उनकी स्वतःस्फूर्ति अभिव्यक्ति होती है और कई बार स्वातजिक। लेकिन दोनों ही रूपों में ये प्रतिरोध का भाव उनके सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक प्रारूपों में अभिव्यक्त हो रहे होते हैं। यह पुस्तक भारतीय समाज के विभिन्न अधीनस्थ एवं प्रताड़ित समूहों के प्रतिरोध का विवेचन करती है हालाँकि यह पिछले 10-15 सालों में हमारे लिखे गये लेखों का संग्रह है, जो विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं में छपते रहे हैं। इस पुस्तक में साहित्यिक कलारूपों में निहित प्रतिरोध के कई भावों की विवेचना की गयी है। इसमें अनेक साहित्यिक मुद्दों एवं साहित्य से जुड़े विमर्शों को भी शामिल किया गया है। उम्मीद है कि पाठकों को यह पुस्तक पसन्द आएगी। ★★★ “1980 के बाद भारतीय समाज में व्यापक परिवर्तन हुए हैं। सोवियत रूस का पतन, नयी आर्थिक व्यवस्था के तहत बाजार का विस्तार, भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया, कम्प्यूटर एवं कॉरपोरेट के अनन्त विस्तार आदि ने पूरी दुनिया के साथ-साथ भारत में भी एक नया समाज गढ़ने की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। मेट्रोपोल, शहर, कस्बा एवं हाईवे के सरायों पर पी.सी.ओ. एवं मोबाइल आउटलेट्स, बी.डी.ओ. एवं सस्ते पाइरेटेड सी. डी. ने एक 'मेट्रोपोल पब्लिक संस्कृति' का विस्तार किया है। बैलगाड़ी, ऊँट के साथ-साथ मेट्रो एवं लो-फ्लोर बसों से बनते भारत पर कोई मुग्ध हो सकता है, पर इसने हमारे समाज में अमीरी-गरीबी, नगरीय एवं ग्रामीण, मेट्रोपोल एवं टाउन के फर्क को न केवल नये सन्दर्भों में पुनर्रचित किया है बल्कि इनके फर्क को अत्यन्त तीखा कर दिया है।"" भूमिका से "

Reviews

Write Your Own Review
You're reviewing:Pratirodh Ki Sanskriti
Your Rating
Copyright © 2025 Vani Prakashan Books. All Rights Reserved.

Design & Developed by: https://octagontechs.com/