Sahitya Aur Samaj
दुनिया में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो औजारों का प्रयोग करता है और उसकी अपनी स्वनिर्मित 'भाषा है। पशु और मनुष्य में इन दो विभिन्नताओं के, अन्यथा सवसे महत्त्वपूर्ण एक तीसरा फर्क यह भी है कि पशु अकेला है, मनुष्य संगठित है। वह समाज बनाकर रहता है। पशु केवल अपनी ही शक्ति, अपने ही निजी अनुभव और अपने ही माद्दे पर हर वस्तु का सामना करता है; लेकिन मनुष्य पिछली सारी पीढ़ी और समस्त युगों के अनुभव से फायदा उठाता है। पिछली पीढ़ी के अनुभव, ज्ञान और विकास की सीमान्त रेखा से हर नयी पीढ़ी अपना जीवन आरम्भ करती है और आने बाली पीढ़ी को वह अपने अनुभवों की थाती सौंप जाती है। तो मानव समाज का इतिहास, मनुष्य के जन्म-जात्त प्राकृतिक तत्त्वों के बिकास का ब्योरा नहीं, बल्कि उसकी सामाजिक व सांस्कृतिक शक्तियों के विकास की धारावाहिक कहानी है। संस्कृति कोई आकाश-कुसुम जैसी चीज नहीं है। वह मनुष्य के आधिक कार्य-व्यापारों से ही सम्पन्न होती है। उत्पादन के तरीकों का विकास, औजारों को प्रयोग में लाने के कौशल का विकास, भाषा, कला व. विज्ञान का विकास और भवन-निर्माण का विकास यही तो है संस्कृति जो मनुष्य के अपने ही बलबूते पर विकसित हुई है और होती रहेगी। आर्थिक कार्य-व्यापारों का अर्थ भी रुपये या धन तक मर्यादित नहीं समझना चाहिए। रुपये या धन की महत्ता तो केवल इसलिए है कि वह जीवन की सम्पूर्ण आवश्यकताओं को खरीदने का एक सर्वमान्य साधन है। और जब तक इस साधन को किसी एक विशेष आवश्यकता में परिणित नहीं कर लिया जाता, तब तक उसमें सभी आवश्यकताएँ अभिनिहित रहती हैं।