Sanson Ke Prachin Gramophone Sarikhe Is Baje Par

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साँसों के प्राचीन ग्रामोफ़ोन सरीखे इस बाजे पर - 
ये प्रलाप वास्तव में प्रलाप नहीं बल्कि प्रतिरोध हैं। इसे समाज में समकालीन कविता के 'क्रिएटिव स्पेस' की पड़ताल भी कह सकते हैं। एक तरह से ये कवि का डिलोरियम है जो हैल्यूसिनेशन तक पहुँच चुका है और 'साहित्य समाज के आगे चलने वाली इकाई' की जानिब से देखें तो ये आमजन के प्रलापी होने की शुरुआत है। अगर व्यवस्थाएँ नहीं बदलो तो आम आदमी भी यूँ ही नींद में चलेगा, शून्य में ताकेगा, ख़ुद से बड़बड़ायेगा और धीरे-धीरे पागल होता जायेगा। ये प्रलाप इसलिए हैं।
इसलिए कवि सुबह तक हर अँधेरा जागकर बिताता है। 'राग मालकास', 'मुक्तिबोध' और 'गाँधी' को याद करते हुए वो ऐसी स्थिति में पहुँचता है, जहाँ सत्ता-जनता को मनुष्य से घोड़े में बदल देने की अपनी पुरानी ख़्वाहिश पूरी करती साफ़ नज़र आती है।
ऐसा नहीं है कि कवि का प्रलाप मात्र व्यवस्था के दंश से दुख के कारण है—'दुखी होना मेरी आदत हो गयी है मैं आदतन दुखी और क्रोधित हूँ/ ऐसा जानकारों का मानना है', बल्कि इस वजह से भी कि स्थिति इतनी भयावह है कि आज दुखी रहना एक परम्परा का निर्वाह मान लिया जाता है।
संग्रह की अधिकांश कविताएँ जीवन की विफलता और विध्वंस के साथ-साथ उनमें शुक्राने की भी आवाज़ है। ये सच है कि मृत्यु, मृतात्मा, रात, अकेलेपन, खेद, दिन ढले, बीमार आँखों के प्रलाप, जैसी कविताएँ अँधियारे पक्ष को दिखाती  हैं।
ये सच है कि कविता का कोई स्वर्णकाल नहीं होता, लेकिन इस संग्रह की कविताओं से गुज़रते हुए लगता है कि मुश्किल समय बेहतर रचनाओं का विध्वंस और प्रसूतिकाल अवश्य होता है, क्योंकि कविता के लिए शिरीष जैसे 'कुछ लोग अब भी/ सूखते कंठ को पानी की तरह' मिलते हैं।
—अमित श्रीवास्तव

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