Sharanam

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"शरणम् का नेपथ्य कोई नयी पुस्तक प्रकाशित होती है तो प्रायः लेखक से पूछा ही जाता है कि उसने वह पुस्तक क्यों लिखी। वही विषय क्यों चुना? मैं भी मानता हूँ कि बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता। किन्तु सृजन के क्षेत्र में यह मामला इतना स्थूल नहीं होता। इसलिए मुझे तो सोचना पड़ता है कि पुस्तक मैंने लिखी या पुस्तक मुझसे लिखी गयी । विषय मैंने चुना अथवा विषय ने मुझे चुना? मैं रहस्यवादी होने का प्रयत्न नहीं कर रहा हूँ किन्तु सृजन का क्षेत्र मुझे कुछ ऐसा ही लगता है। गीता को मैंने पहली बार शायद अपने विद्यालय के दिनों में कुछ न समझते हुए भी पढ़ने का प्रयत्न किया था। कारण? मेरा स्वभाव है कि मैं जानना चाहता हूँ कि कोई पुस्तक महत्त्वपूर्ण क्यों मानी जाती है। तो गीता को भी पढ़ने का प्रयत्न किया, समझ में आये या न आये। उसके पश्चात् अनेक विद्वानों की टीकाएँ और भाष्य पढ़ने का प्रयत्न किया । किन्तु “महासमर” लिखते हुए मन में आया कि मूल गीता को एक बार संस्कृत में भी अवश्य पढ़ना चाहिए। तब डॉ. कृष्णावतार से भेंट हो गयी। उनसे गीता पढ़ी। महासमर लिखा गया। किन्तु इधर मेरे अपने परिवार में यह प्रस्ताव रखा गया कि हम अपने बच्चों के साथ बैठ कर गीता पढ़ें। हम सब जानते थे कि बच्चों की समझ में यह विषय नहीं आयेगा और वे सोते भी रह सकते हैं। फिर भी एक दिन में पाँच श्लोकों की गति से हमने गीता पढ़ी। पढ़ाने वाला था मैं, जिसे स्वयं न संस्कृत भाषा का ज्ञान है, न गीता के दर्शन और चिन्तन का। फिर भी हम पढ़ते रहे। मैंने पहली बार अनुभव किया कि पढ़ने से कोई ग्रन्थ उतना समझ में नहीं आता, जितना कि पढ़ाने से आता है। पढ़ाते हुए व्यक्ति समझ जाता है कि उसे क्या समझ में नहीं आ रहा है। फिर श्रोता प्रश्न भी करते हैं। मेरा छोटा पोता जो केवल तेरह वर्षों का है, कुछ अधिक गम्भीर था। वह सुनता भी था और मन में उठे बीहड़ प्रश्न भी पूछता था । प्रश्न उसके हों अथवा मेरे अपने मन के, वे मेरे मन में गड़ते चले गये। मेरा अनुभव है कि मन में जो प्रश्न उठते हैं, मन निरन्तर उनके उत्तर खोजता रहता है। चेतन ढंग से भी और अचेतन ढंग से भी। और वे उत्तर ही मुझसे उपन्यास लिखवा लेते हैं।... इस बार भी वही हुआ। वे प्रश्न मेरे मन में उमड़ते-घुमड़ते रहे। अपना उत्तर खोजते रहे।... किन्तु सबसे बड़ी समस्या थी कि मुझे उपन्यास लिखना था । मैं उपन्यास ही लिख सकता हूँ और पाठक उपन्यास को पढ़ता भी है और समझता भी है। मैं जानता था कि यह कार्य सरल नहीं था। गीता में न कथा है, न अधिक पात्र। घटना के नाम पर बस विराट रूप के दर्शन हैं। घटनाएँ नहीं हैं, न कथा का प्रवाह है। संवाद हैं, वह भी नहीं, प्रश्नोत्तर हैं, सिद्धान्त हैं, चिन्तन है, दर्शन है, अध्यात्म है। उसे कथा कैसे बनाया जाए ? किन्तु उपन्यासकार का मन हो तो उपन्यास ही बनता है, जैसे मानवी के गर्भ में मानव सन्तान ही आकार ग्रहण करती है। टुकड़ों-टुकड़ों में उपन्यास बनता रहा। पात्रों के रूप में संजय और धृतराष्ट्र तो थे ही; हस्तिनापुर में उपस्थित कुन्ती भी आ गयी, विदुर और उनकी पत्नी भी आ गये। गान्धारी और उसकी बहुएँ भी आ गयीं । द्वारका में बैठे वसुदेव, देवकी, रुक्मिणी और उद्धव भी आ गये। उपन्यासकार जितनी छूट ले सकता है, मैंने ली। किन्तु गीता के मूल रूप से छेड़-छाड़ नहीं की। मैं गीता का विद्वान् नहीं हूँ, पाठक हूँ। उपन्यासकार के रूप में जो मेरी समझ में आया, वह मैंने अपने पाठकों के सामने परोस दिया। तो इसे धर्म अथवा दर्शन का ग्रन्थ न मानें। यह गीता की टीका अथवा उसका भाष्य भी नहीं है। यह एक उपन्यास है, शुद्ध उपन्यास, जो गीता में चर्चित सिद्धान्तों को उपन्यास के पाठक के सम्मुख उसके धरातल पर ही प्रस्तुत करने का प्रयत्न करता "
"शरणम् का नेपथ्य कोई नयी पुस्तक प्रकाशित होती है तो प्रायः लेखक से पूछा ही जाता है कि उसने वह पुस्तक क्यों लिखी। वही विषय क्यों चुना? मैं भी मानता हूँ कि बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता। किन्तु सृजन के क्षेत्र में यह मामला इतना स्थूल नहीं होता। इसलिए मुझे तो सोचना पड़ता है कि पुस्तक मैंने लिखी या पुस्तक मुझसे लिखी गयी । विषय मैंने चुना अथवा विषय ने मुझे चुना? मैं रहस्यवादी होने का प्रयत्न नहीं कर रहा हूँ किन्तु सृजन का क्षेत्र मुझे कुछ ऐसा ही लगता है। गीता को मैंने पहली बार शायद अपने विद्यालय के दिनों में कुछ न समझते हुए भी पढ़ने का प्रयत्न किया था। कारण? मेरा स्वभाव है कि मैं जानना चाहता हूँ कि कोई पुस्तक महत्त्वपूर्ण क्यों मानी जाती है। तो गीता को भी पढ़ने का प्रयत्न किया, समझ में आये या न आये। उसके पश्चात् अनेक विद्वानों की टीकाएँ और भाष्य पढ़ने का प्रयत्न किया । किन्तु “महासमर” लिखते हुए मन में आया कि मूल गीता को एक बार संस्कृत में भी अवश्य पढ़ना चाहिए। तब डॉ. कृष्णावतार से भेंट हो गयी। उनसे गीता पढ़ी। महासमर लिखा गया। किन्तु इधर मेरे अपने परिवार में यह प्रस्ताव रखा गया कि हम अपने बच्चों के साथ बैठ कर गीता पढ़ें। हम सब जानते थे कि बच्चों की समझ में यह विषय नहीं आयेगा और वे सोते भी रह सकते हैं। फिर भी एक दिन में पाँच श्लोकों की गति से हमने गीता पढ़ी। पढ़ाने वाला था मैं, जिसे स्वयं न संस्कृत भाषा का ज्ञान है, न गीता के दर्शन और चिन्तन का। फिर भी हम पढ़ते रहे। मैंने पहली बार अनुभव किया कि पढ़ने से कोई ग्रन्थ उतना समझ में नहीं आता, जितना कि पढ़ाने से आता है। पढ़ाते हुए व्यक्ति समझ जाता है कि उसे क्या समझ में नहीं आ रहा है। फिर श्रोता प्रश्न भी करते हैं। मेरा छोटा पोता जो केवल तेरह वर्षों का है, कुछ अधिक गम्भीर था। वह सुनता भी था और मन में उठे बीहड़ प्रश्न भी पूछता था । प्रश्न उसके हों अथवा मेरे अपने मन के, वे मेरे मन में गड़ते चले गये। मेरा अनुभव है कि मन में जो प्रश्न उठते हैं, मन निरन्तर उनके उत्तर खोजता रहता है। चेतन ढंग से भी और अचेतन ढंग से भी। और वे उत्तर ही मुझसे उपन्यास लिखवा लेते हैं।... इस बार भी वही हुआ। वे प्रश्न मेरे मन में उमड़ते-घुमड़ते रहे। अपना उत्तर खोजते रहे।... किन्तु सबसे बड़ी समस्या थी कि मुझे उपन्यास लिखना था । मैं उपन्यास ही लिख सकता हूँ और पाठक उपन्यास को पढ़ता भी है और समझता भी है। मैं जानता था कि यह कार्य सरल नहीं था। गीता में न कथा है, न अधिक पात्र। घटना के नाम पर बस विराट रूप के दर्शन हैं। घटनाएँ नहीं हैं, न कथा का प्रवाह है। संवाद हैं, वह भी नहीं, प्रश्नोत्तर हैं, सिद्धान्त हैं, चिन्तन है, दर्शन है, अध्यात्म है। उसे कथा कैसे बनाया जाए ? किन्तु उपन्यासकार का मन हो तो उपन्यास ही बनता है, जैसे मानवी के गर्भ में मानव सन्तान ही आकार ग्रहण करती है। टुकड़ों-टुकड़ों में उपन्यास बनता रहा। पात्रों के रूप में संजय और धृतराष्ट्र तो थे ही; हस्तिनापुर में उपस्थित कुन्ती भी आ गयी, विदुर और उनकी पत्नी भी आ गये। गान्धारी और उसकी बहुएँ भी आ गयीं । द्वारका में बैठे वसुदेव, देवकी, रुक्मिणी और उद्धव भी आ गये। उपन्यासकार जितनी छूट ले सकता है, मैंने ली। किन्तु गीता के मूल रूप से छेड़-छाड़ नहीं की। मैं गीता का विद्वान् नहीं हूँ, पाठक हूँ। उपन्यासकार के रूप में जो मेरी समझ में आया, वह मैंने अपने पाठकों के सामने परोस दिया। तो इसे धर्म अथवा दर्शन का ग्रन्थ न मानें। यह गीता की टीका अथवा उसका भाष्य भी नहीं है। यह एक उपन्यास है, शुद्ध उपन्यास, जो गीता में चर्चित सिद्धान्तों को उपन्यास के पाठक के सम्मुख उसके धरातल पर ही प्रस्तुत करने का प्रयत्न करता "

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