Shiuali Ke Phool
शिउली के फूल -
अहल्या तुम जानती थीं ना वो इन्द्र हैं,
फिर भी चुप रहीं। आख़िर क्यों?
तुम क्या किसी की होती, द्रौपदी
कोई तुम्हारे लायक था भी क्या?
परित्यक्ता, ना बाँध सकी पति को, प्रसूता।
मेरी तपस्या भी कम नहीं थी।
बहुत थक गयी हूँ, थोड़ी देर सोने दो।
उषा के उच्छ्वास-सी, मन्दिर चंचल रागिनी मैं
ताज पीहर की सलोनी, पिता का दृग मान भी मैं।
राष्ट्रकवि दिनकर जी ने कहा था—
"जिसकी बाँहें बलमयी, ललाट अरुण है।
भामिनी वही तरुणी, नर वही तरुण है।"
सदियों से नारी शिउली के फूल सदृश्य यामिनी के अंचल में कुछ स्वप्न बुनती आयी है। प्रत्यूष वेला संस्कृति की वेदी पर उन्हें उत्सर्ग नित निज अस्तित्व के आयाम की तलाश में पुनः प्रयासरत हो जाती है कोई तनया, भार्या, तिरिया, माँ! किन्तु वक़्त अब अहर्निश स्वप्नद्रष्टाओं का नहीं, बल्कि सीने पर हल चला संक्रमित ग्रन्थियों को दूर करने वाली ओजस्विताओं का है। शिउली मात्र अपने सुन्दर, सुगन्धित पुष्प हेतु नहीं किन्तु अपने सम्पूर्ण अस्तित्व हेतु विशेष है।
ऐसे ही प्रसंगों को परिभाषित करती, कुछ झकझोरती, कहीं विरोध करती, कहीं हौले से थपकाती तो कहीं अनय को ललकारती, नव दृष्टिकोण और नये प्रतिरोध के साथ रचित और नव निर्माण हेतु प्रतिबद्ध, अहल्या के मौन किन्तु सशक्त प्रतिवाद को समर्पित एक अदम्य कृति।
अन्तिम आवरण पृष्ठ
लीना झा की प्रथम कविता पुस्तक अनेक प्रश्नों से जूझती है। आज का समय नव पल्लवों के लिए यूँ ही नहीं प्रश्नाकुल है। यह समय ही ऐसा है। एक तरफ़ संस्कृति की दुहाई देता समाज, दूसरी ओर उस गुँजलक से निकलने को छटपटाती स्त्री। कवि मन सदा कोमल होता है तो परम्परा का निषेध भी करता है। लीना झा एक ओर शिउली के फूल के बहाने स्त्री की अहमियत बयाँ करती हैं तो दूसरी ओर अहल्या से प्रश्न करने के क्रम से नारी के निजत्व की रक्षा का आह्वान करती हैं।
लीना झा आगे अधिक लिखें, अपना तेवर बरकरार रखें यह कामना है।—डॉ. उषाकिरण खान