Sukhan Rang
प्रेम कुमार 'नज़र' के कलाम से मैं उस वक़्त से आशना हूँ, जब उन्होंने अदब के मैदान में ताज़ा-ताज़ा क़दम रखा था, तब से अब तक मैं उनकी तरक़की, उनके कलाम की बढ़ती हुई खूबसूरती और फ़िक्र की गहराई को देख-देख कर हैरतज़दा होता रहा हूँ। प्रेम कुमार 'नज़र' नयी ग़ज़ल के उन शुअरा में हैं जिनको अब सनद का दर्जा हासिल है। चालीस वर्ष से भी ज़्यादा मुद्दत से वह उर्दू की नयी ग़ज़ल की ख़िदमत में मसरूफ़ हैं। 'नज़र' का शुमार उन शुअरा में है जिन्होंने पिछली ग़ज़ल से नाता तोड़कर नयी ग़ज़ल के रास्ते निकालने की मुहिम में कारहाय नुमायाँ अंजाम दिये हैं। उन्होंने ग़ज़ल को झूठे अवामी और इस्लाही रंग से तो महफूज़ रखा ही है और इसे इन्सानी रूह और बदन में उठने वाली लहरों और मौजों का इज़हार तो बनाया ही है, उन्होंने इस बात का भी ख़याल रखा है कि ग़ज़ल की तहज़ीब, जिस तहदारी, जिस नज़ाकत, लताफ़ता-ए-इज़हार का तकाज़ा करती है उसे भी पूरी तरह मलहूज़ व महफूज़ रखा जाये। उनकी ग़ज़ल वोह इकहरी ग़ज़ल नहीं है जिसमें शायर नंगा नज़र आता है। उनकी ग़ज़ल में नारे की गूंज और हिरस-ओ-हवस की आँधियों का शोर नहीं है बल्कि इस्तिआरे, इशारे, एहसास की नज़ाकत, दुनिया के रंगों, खुशबूओं, हवाओं, रोशनी और अन्धेरे का तजुर्बा है। इस तरह प्रेम कुमार 'नज़र' हमें ऐसी दुनिया से रूश्नास करते हैं जहाँ हम खुद को इन्सान की हैसियत से पहचानते हैं और खुद अपने तजुर्बात व अमीक़ तसब्बुरात को अपने सामने आशकार देखते हैं। उम्र के साथ-साथ ‘नज़र' की आँख में और भी गहराई पैदा हुई है, वो अपने दुःख-दर्द, दुनिया के दुःख-दर्द और तमाम कायनात के दुःख की गहराई तक पहुँचती है। ‘नज़र' की ग़ज़ल में एक संजीदगी और महजूनी है। मुझे बड़ी खुशी है कि 'नज़र' का कलाम देवनागरी में छप रहा है! इस तरह उनकी शायरी और भी दूर तक फैलेगी। -मुनीर नियाज़ी