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आधुनिक हिन्दी कविता में 'सहजतावाद' काव्यान्दोलन के प्रवर्तक कीर्तिकुमार सिंह का यह पाँचवाँ कविता संग्रह है। कीर्तिकुमार सिंह ने 'सहजतावाद' आन्दोलन की शुरुआत 1993 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से की थी।
छायावादोत्तर हिन्दी कविता के साथ एक विचित्र विडम्बना रही। हर कवि यह दावा कर रहा था कि वह आम आदमी के पक्ष में खड़ा है, उसके संघर्षों के साथ है और उसके लिए कविता लिख रहा है। बात अपनी जगह सही थी; लेकिन कवि आम आदमी के पक्ष में क्या लिख रहा है, यह आदमी की समझ से बाहर था। आम आदमी के संघर्ष में उसके साथ खड़ी कविताएँ इतनी दुर्बोध रहीं कि आम आदमी उन्हें समझ ही नहीं सकता था। अत्यन्त जटिल, दुरूह और बोझिल कविताएँ लिखने वाले कवि, कहने को तो आम आदमी के लिए लिख रहे थे, लेकिन वे व्यवहार में आम आदमी से तथाकथित एक सम्मानजनक दूरी भी बनाये हुए थे। वे खुद ही आम आदमी भी बने हुए थे और खुद ही आम आदमी के मसीहा भी । मूल रूप में वे आम आदमी के उस वकील की तरह रहे, जिसकी बहस और जिरह आम आदमी केवल मुँह खोले देखता रहा, समझ नहीं पाया।
नागार्जुन और धूमिल जैसे कुछ कवि, जो जनता का वकील बनने के बजाय जनता के साथ खड़े होकर जनता के संघर्ष में शामिल हुए, जनता के दिलों में जगह बनाने में सफल रहे उनकी कविताओं को आम आदमी पढ़कर समझ सकता है।
'कीर्तिकुमार सिंह की दार्शनिक कविताएँ' की लम्बी भूमिका 'सहजतावाद' के मर्म को उद्घाटित करती है। भाव की दृष्टि से कविता चाहे जितनी गहरी हो; कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति उसे पढ़कर समझ सके, यह कविता की अनिवार्य विशेषता होनी चाहिए। कीर्तिकुमार सिंह का यह कविता-संग्रह उसी दिशा में एक और प्रयास है।