Uttar Aadhuniktavad Aur Dalit Sahitya
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उत्तर-आधुनिक परिदृश्य में दलित-साहित्य ने एक तरह से क्रान्तिकारी विचार-प्रवाह की निष्पत्ति की है। पिछड़े, अति पिछड़े, वंचितों, उपेक्षितों, परिधि पर यातना भोगते विशाल जन-समाज को इस साहित्य ने शब्द और कर्म के समाजशास्त्र की ओर प्रवृत्त किया है। भारत में उत्तरआधुनिक मनोदशा के दो प्रबल चिन्तक हैं-अम्बेडकर और गाँधी। अम्बेडकर का लम्बा प्रबन्धात्मक लेख 'भारत में जाति प्रथा : संरचना, उत्पत्ति और विकास' तथा गाँधी का 'हिन्द-स्वराज्य' चिन्तन उत्तरआधुनिकता के पहले ऐतिहासिक दस्तावेज़ हैं। पश्चिमी सभ्यता संस्कृति की ‘आधुनिकता' को दोनों चिन्तकों ने अस्वीकार करते हुए 'स्थानीयता' की ज़ोरदार वकालत की है। दलित, अतिदलित का उत्तर आधुनिकतावादी 'पाठ' अब 'मूल्यांकनपरक विमर्श' बन चला है। हिन्दी साहित्य में दलित साहित्य की व्याख्याओं का यह नया 'पाठ' विखण्डनवादी पाठ-प्रविधियों से पुरानी समीक्षा को पीछे धकेल सका है। आज 'उत्तर-आधुनिकता' एक विश्व-स्थिति है, इससे हम बच नहीं सकते। कृष्णदत्त पालीवाल ने उत्तर-आधुनिकतावादी और उत्तर-संरचनावादी-विमर्शों की हिन्दी में अगुआई की है। इन विमर्शों को साहित्याध्ययनों में, सभा गोष्ठियों में आज वरीयता प्राप्त है। कृष्णदत्त पालीवाल की यह पुस्तक जागरूक पाठकों के लिए प्रतिनिधित्वरहित की ‘उपस्थिति' है। इस 'अनुपस्थिति' की उपस्थिति में चिन्तन की बहु केन्द्रीय अवस्था का प्रबल स्वर है।