Uttaradhikarini
उत्तराधिकारिणी -
अपने लेखन में निरन्तर प्रयोगधर्मी रहे मनोहर श्याम जोशी ने पुनर्रचना के रूप में एक नयी विधा का हिन्दी में सूत्रपात किया था। उस अर्थ में 'उत्तराधिकारिणी' का अपना ख़ास महत्त्व है। जो बात इसमें विशेष रूप से ध्यान रखने वाली है वह यह है कि बावजूद इसके कि इसे पुनर्रचना कहा गया है यह पूर्ण रूप से मौलिक उपन्यास है। 'वाशिंगटन स्क्वायर' की पुनर्रचना कहकर जोशी जी ने 19वीं शताब्दी के महान लेखक हेनरी जेम्स के प्रति अपनी श्रद्धा निवेदित की है।
जोशी जी का यह उपन्यास उनके समस्त लेखन में एक भिन्न स्थान रखता है। इसमें उनकी वह शैली नहीं है जिसकी वजह से उनको हिन्दी में उत्तर-आधुनिक उपन्यास के जनक के रूप में देखा गया- अनेकान्तता या क़िस्सों के भीतर से निकलते हुए क़िस्से, भाषा का जबरदस्त खेल। लेकिन एक बात है इस उपन्यास में रोचकता भरपूर है। भाषा का वह बाँकपन भी है जो बाद में उनकी सिग्नेचर शैली मानी गयी।
अन्तिम पृष्ठ आवरण -
"डॉक्टर राज ने अपनी बेटी की 'मूर्ख भावुकता' को बीमारी का दर्जा दिया और बाक़ायदा जाँच-पड़ताल शुरू की। मनमथ नाम के जिस 'कीटाणु' के कारण यह बीमारी फैली थी उसके बाबत पूरी जानकारी हासिल करना ज़रूरी था। लेकिन पूछताछ करने पर महज़ इतना पता चल सका कि मनमथ बाबू के बारे में किसी को कुछ पता नहीं है। या यो कहिए कि वही पता है जो मनमथ बाबू ने ख़ुद बताया है। अलग-अलग लोगों से हीरो मनमथ के जीवन के नाटकीय उतार-चढ़ाव, काव्यात्मक धूप-छाँव के अलग-अलग क़िस्से सुनने को मिले और डॉक्टर साहेब इसी नतीजे पर पहुँचे कि 'एक लफंगे ने अपने हुस्न का सहारा लेकर मेरी अबोध बिटिया का मजाक उड़ाया है।' कसमियाँ तौर पर यही कहा जा सकता है कि मनमथ बाबू ने कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने बाप की जमापूँजी किसी 'बिजनेस' में गँवा दी और फिर घर से भाग खड़े हुए। कोई बारह वर्ष बाद लौटे हैं और अपनी ग़रीब विधवा बहन के घर में जमे हुए हैं। उन्हें किसी अच्छी 'बिजनेस' की तलाश है, मगर फिलहाल शायद डॉक्टर राज की अपार सम्पदा की उत्तराधिकारिणी कामिनी के प्रेमी और पति बन जाने की योजना में ही 'बिजी हैं"।
Publication | Vani Prakashan |
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