Vanpakhi Utare Pahad Se

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"वनपाखी उतरे पहाड़ से - बनावट और बुनावट के धरातल पर यशोधरा राठौर के गीत अपने समकालीन नवगीतकारों से इस अर्थ में भिन्न हैं कि वे अपने गीतों में प्रयोगधर्मी नयापन लाने के लिए गीत के छन्दों के साथ अमानवीय खिलवाड़ नहीं करतीं और न ही उनके गीतों के विभिन्न बन्द अर्थ-संहति की दृष्टि से अलग-अलग अर्थ देते हैं, उनमें एक तारतम्यता होती है। उनके गीतों के आन्तरिक संघटन में उनकी लय-संरचना की तरह ही अर्थान्विति होती है, जिससे उनके गीतों में समग्रता का बोध होता है । उनके गीतों की भाषा बिल्कुल सहज, आम बोलचाल के करीब है, किन्तु अकलात्मक कतई नहीं है। यशोधरा जी के गीतों में अर्थ-अमूर्तन की सरहद में प्रवेश कर जाने वाले संश्लिष्ट बिम्ब नहीं के बराबर हैं। वे अपने काव्य-बिम्ब की रचना के लिए भाववादी कल्पना-लोक में नहीं भटकतीं, अपितु अपने आस-पास बिखरी दुनिया और सामाजिक जीवन से उन्हें चुनती हैं, जिसके कारण उनके गीत पाठकों की संवेदना से सीधे-सीधे जुड़ जाते हैं और उसमें एक आत्मीय अपनापन का अहसास होता है। सामाजिक यथार्थ के विभिन्न रूपों को वे अपने गीतों में समेट लेने में काफ़ी कुशल दिखाई देती हैं- ""आदमी अब / आदमी जैसे नहीं मिलते/नहीं मिलती/ धूप में अब गुनगुनाहट है/ऊब, टूटन, घुटन है/औ, कसमसाहट है/हैं न झांका से हवा के पात अब हिलते।"" -नचिकेता ܀܀܀܀܀܀ नवगीत की संवेदनशीलता सहज ग्राह्य तो होती ही है, प्रतिरोध और प्रतिकार का वातावरण भी निर्मित करती है और आम आदमी के मन में क्रान्ति की अवधारणा का बीजारोपण करती है । इस सन्दर्भ में यदि डॉ. यशोधरा राठौर के गीत-नवगीत अर्धशती-पूर्व के लोकगीतों से लेकर आज तक के नवगीतों के विकास-क्रम को सम्पूर्णता से स्वयं में समेटे हुए हैं जो अगले सोपानों पर निरन्तर क़दम रखते हुए कोमलता से खुरदुरेपन की ओर अग्रसर हैं जिससे उनके भविष्य के महान नवगीतकार होने का परिचय मिल जाता है। डॉ. राठौर के सृजन में गेयता एवं नवता दोनों के रागात्मक प्रसंगों के साथ नूतन संवेदना की सृष्टि होती दिखाई पड़ती है, जिसके अर्थवान बिम्बों में मर्मस्पर्शी चेतना वर्तमान है। नवगीत : 'नयी दस्तकें', 'धार पर हम', नवगीत का लोकधर्मी सौन्दर्य-बोध, 'शब्दायन : दृष्टिकोण एवं प्रतिनिधि’, ‘गीत-वसुधा', 'नयी सदी के नवगीत', 'समकालीन गीतकोश', 'नवगीत के नये प्रतिमान' आदि संकलनों में उनकी उपस्थिति गीत - नवगीत के उज्ज्वल भविष्य हेतु आश्वस्त करती है। - मधुकर अष्ठाना "

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