Zindagi Live

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प्रियदर्शन के पहले ‌उपन्यास ‘ज़िन्दग़ी लाइव’ को इस बात के एक उद्धरणीय उदाहरण की तरह पेश किया जा सकता है कि कैसे ‌एक गम्भीर सारतत्त्व को पूरी तरह से भारहीन कर लेने के बावजूद, ‌उसकी मूल्यचेतना में पैसा भर घाटा लाये बिना भी ‘लोक-लुभावन’ के विन्यास में उसे पाठक-सुलभ बनाया जा सकता है। रोचक और पठनीय मात्र अपने आप में एक मूल्य नहीं बल्कि मूल्य को आम पाठक के लिये सहेज रखने का आवरण है। अगर मैं कहूँ कि ‘ज़िन्दगी लाइव’ जैसी किताबें साहित्य के लिये मास-मीडिया के सदस्य के रूप में अपनी प्रासंगिकता के अर्जन का एक साधन बनती हैं, साहित्य की किताब का जो एक विशेष प्रकार्य है अपनी तरह के संवेदनात्मक ज्ञान की निर्मिति और प्रसार का है और जो लोक-लुभावन के लक्ष्य के सम्मुख ख़तरे में जा पड़ा है ‌उसकी भी रक्षा करती हैं और दोनों को जोड़ कर अपनी विधा के होने का औचित्य सिद्ध करती हैं, और हिन्दी में अभी यह अपनी विधा में अपनी जैसी पहली और अकेली है तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है, महज़ अभिधा में कही गयी एक बात है। अर्चना वर्मा, सुधी आलोचक (अब दिवंगत)

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