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"आनंद हर्षुल के उपन्यासों में औपन्यासिक कल्पना मुख्य भूमिका निभाती है। उनके उपन्यास औपन्यासिक कल्पना के आलोक में, यथार्थ को पुनर्विन्यस्त कर एक नये और अप्रत्याशित यथार्थ को जन्म देते हैं। आनंद उपन्यास कहते नहीं, वाक्य-दर-वाक्य उसे महीन बुनते हैं, क्योंकि यह बुनाई हमारे आँखों के सामने सम्पन्न होती है तो हम खुद भी इस प्रक्रिया का अंग बन जाते हैं। देखना में जितनी सघन करुणा व्याप्त है, हिन्दी के बहुत कम उपन्यासों में मिलती है। यहाँ यह कहते चलें कि आनंद अपने उपन्यासों और कहानियों को कविता के बहुत पास रखकर चलते हैं। यह उनका गद्य-कौशल है कि वे उसे न तो लद्धड़ होने देते हैं और न ही उसे पूरी तरह कविता में फिसलने का अवसर देते हैं। आनंद का गद्य पढ़ते हुए आपको उसमें कहीं बहुत गहराई से कविता का आलोक उठता हुआ महसूस होता है। मानो कविता की रोशनी में आनंद का गद्य आकार ले रहा हो। यह बात जितनी देखना के साथ सही है, उतनी ही उनकी अन्य कृतियों के साथ भी है। देखना देखने के सुख और देखने की पीड़ा के बारे में है। यह देखने के जादू और उसकी सीमा को चिह्नित करता है। देखना को पढ़ते हुए आप यह महसूस करते हैं कि जीवन हज़ारों-लाखों तरह से प्रस्फुटित हो सकता है। ग़रीबी में बीतता जीवन मानो किसी विशाल शिला के नीचे उगी घास हो जो किसी-न-किसी तरह अपने को जीवित रखने का रास्ता खोज रही हो। प्लेटफ़ॉर्म पर जीवन बिताते भिक्षार्थी रेलगाड़ी आने पर खिड़की-दर-खिड़की भीख माँगते हैं, कुछ पलों के लिए उनके भीख देने या न देने वालों से रिश्ते बनते हैं, फिर रेलगाड़ी चल पड़ती है, जो भी क्षणिक रिश्ते बने थे, टूटकर बिखर जाते हैं भिक्षार्थी वापस किन्हीं अभिनेताओं की तरह अपनी-अपनी निर्धारित जगहों पर लौट जाते हैं और अगली गाड़ी का इन्तज़ार करने लगते हैं। कहने को तो देखना में वर्णित यह रेलवे प्लेटफ़ॉर्म का जीवन है, पर क्या इस पृथ्वी पर आधुनिक मनुष्य का हर तरह का जीवन ऐसा ही नहीं है? मानो समूची ज़िन्दगी ही प्लेटफ़ॉर्म पर बिताया गया वक़्त है। हमारा, आपका घर प्लेटफ़ॉर्म पर बनी बेंचों से ज्यादा और है भी क्या। अमेरिका के प्रसिद्ध डिज़ाइनर बकमिन्स्टर फुलर ने यह पूछे जाने पर कि अन्तरिक्ष-यान में कैसा अनुभव होता है, कहा था कि हमारी पृथ्वी भी अन्तरिक्ष-यान ही है। आपको यहाँ जो लग रहा है, वह अन्तरिक्ष-यान पर हुआ अनुभव ही है। यदि इस प्रश्नोत्तर को हम देखना उपन्यास के सन्दर्भ में देखें, हमें कहना होगा कि हम सबका जीवन अलग-अलग तरह के प्लेटफ़ॉर्म पर बिताया हुआ जीवन ही है। —उदयन वाजपेयी "
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"आनंद हर्षुल के उपन्यासों में औपन्यासिक कल्पना मुख्य भूमिका निभाती है। उनके उपन्यास औपन्यासिक कल्पना के आलोक में, यथार्थ को पुनर्विन्यस्त कर एक नये और अप्रत्याशित यथार्थ को जन्म देते हैं। आनंद उपन्यास कहते नहीं, वाक्य-दर-वाक्य उसे महीन बुनते हैं, क्योंकि यह बुनाई हमारे आँखों के सामने सम्पन्न होती है तो हम खुद भी इस प्रक्रिया का अंग बन जाते हैं। देखना में जितनी सघन करुणा व्याप्त है, हिन्दी के बहुत कम उपन्यासों में मिलती है। यहाँ यह कहते चलें कि आनंद अपने उपन्यासों और कहानियों को कविता के बहुत पास रखकर चलते हैं। यह उनका गद्य-कौशल है कि वे उसे न तो लद्धड़ होने देते हैं और न ही उसे पूरी तरह कविता में फिसलने का अवसर देते हैं। आनंद का गद्य पढ़ते हुए आपको उसमें कहीं बहुत गहराई से कविता का आलोक उठता हुआ महसूस होता है। मानो कविता की रोशनी में आनंद का गद्य आकार ले रहा हो। यह बात जितनी देखना के साथ सही है, उतनी ही उनकी अन्य कृतियों के साथ भी है। देखना देखने के सुख और देखने की पीड़ा के बारे में है। यह देखने के जादू और उसकी सीमा को चिह्नित करता है। देखना को पढ़ते हुए आप यह महसूस करते हैं कि जीवन हज़ारों-लाखों तरह से प्रस्फुटित हो सकता है। ग़रीबी में बीतता जीवन मानो किसी विशाल शिला के नीचे उगी घास हो जो किसी-न-किसी तरह अपने को जीवित रखने का रास्ता खोज रही हो। प्लेटफ़ॉर्म पर जीवन बिताते भिक्षार्थी रेलगाड़ी आने पर खिड़की-दर-खिड़की भीख माँगते हैं, कुछ पलों के लिए उनके भीख देने या न देने वालों से रिश्ते बनते हैं, फिर रेलगाड़ी चल पड़ती है, जो भी क्षणिक रिश्ते बने थे, टूटकर बिखर जाते हैं भिक्षार्थी वापस किन्हीं अभिनेताओं की तरह अपनी-अपनी निर्धारित जगहों पर लौट जाते हैं और अगली गाड़ी का इन्तज़ार करने लगते हैं। कहने को तो देखना में वर्णित यह रेलवे प्लेटफ़ॉर्म का जीवन है, पर क्या इस पृथ्वी पर आधुनिक मनुष्य का हर तरह का जीवन ऐसा ही नहीं है? मानो समूची ज़िन्दगी ही प्लेटफ़ॉर्म पर बिताया गया वक़्त है। हमारा, आपका घर प्लेटफ़ॉर्म पर बनी बेंचों से ज्यादा और है भी क्या। अमेरिका के प्रसिद्ध डिज़ाइनर बकमिन्स्टर फुलर ने यह पूछे जाने पर कि अन्तरिक्ष-यान में कैसा अनुभव होता है, कहा था कि हमारी पृथ्वी भी अन्तरिक्ष-यान ही है। आपको यहाँ जो लग रहा है, वह अन्तरिक्ष-यान पर हुआ अनुभव ही है। यदि इस प्रश्नोत्तर को हम देखना उपन्यास के सन्दर्भ में देखें, हमें कहना होगा कि हम सबका जीवन अलग-अलग तरह के प्लेटफ़ॉर्म पर बिताया हुआ जीवन ही है। —उदयन वाजपेयी "
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आनंद हर्षुल (Anand Harshul)

"आनंद हर्षुल (जन्म : 23 जनवरी 1959) के यहाँ यथार्थ अनवरुद्ध गति में बहता स्वच्छन्द यथार्थ है। दरअसल यथार्थ की इस तरल उठान को एक क़िस्म की स्वैर-वृत्ति निरन्तर यत्नपूर्वक साधे रखती है। इस प्रक्रिया में कथा - भाषा का विनियोग इस कौशल के साथ किया गया है कि कथा-संवेदना अपनी गतिशील चित्रात्मकता में अपना विन्यास प्राप्त करती है। उनके पाँच कहानी-संग्रह- ‘बैठे हुए हाथी के भीतर लड़का’, ‘पृथ्वी को चन्द्रमा’, ‘रेगिस्तान में झील’, ‘अधखाया फल एवं चिड़िया और मुस्कुराहट’ तथा तीन उपन्यास- ‘चिड़िया बहनों का भाई’, ‘देखना’ एवं ‘रेतीला’ तथा एक सम्पादित पुस्तक ‘अनगिन से निकलकर एक’ अब तक प्रकाशित हैं। उनकी रचनाओं का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हुआ है। वे 'सुभद्रा कुमारी चौहान पुरस्कार' (1997), 'विजय वर्मा अखिल भारतीय कथा सम्मान' (2003), ‘वनमाली कथा सम्मान' (2014) तथा संस्कृति मन्त्रालय, भारत सरकार की ‘सीनियर फ़ेलोशिप' (2020-21) से सम्मानित हैं। "

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