Sudama Pandey Ka Prajatantra
'सुदामा पाँड़े की प्रजातन्त्र'-कविता तथा संग्रह का यह शीर्षक ही कवि एवं उसके सृजन संसार के बारे में हमें आगाह कर देता हैं किन्तु वे स्वयं को ब्राह्मणत्व तथा सम्भावित अभिजात साहित्यिकता का प्रतीक ‘पाण्डेय' नहीं लिखते, न वे ठेठ ‘पाण्डे' का प्रयोग करते हैं बल्कि अपने आर्थिक वर्ग तथा समाज के व्यंग्य-उपहास को अभिव्यक्ति देने वाले ‘पाँड़े' को स्वीकार करते हैं। ‘सुदामा' के अतिरिक्त सन्दर्भो से यह पूरा और कई अर्थ प्राप्त कर लेता है। ऐसे ‘मामूली' नाम वाले व्यक्ति का ‘प्रजातन्त्र' कैसा और क्यों हो सकता है वही इन कविताओं में बहुआयामीय अभिव्यक्ति पाता है। इनमें सुदामा पाँडे 'दि मैन हू सफ़र्स' हैं जबकि धूमिल ‘दि माइंड विच क्रिएट्स' है। आप चाहें तो इन पर 'द्वा सुपर्णा' को भी लागू कर सकते हैं। दोनों के अचानक मुकाबले से ही यह क्रूर, बाहोश करने वाला तथ्य सामने आता है : “न कोई प्रजा है/न कोई तन्त्र/यह आदमी के ख़िलाफ़ आदमी का खुला षड्यन्त्र जिस इनसान के विरुद्ध यह साज़िश चल रही है।